ज्ञातव्य है कि एक विशे, काल में शाकद्वीपीय ब्राह्मणों की उत्पत्ति भगवान सूर्य के अंग से हुई है न कि मन्वादि-दक्षादि प्रजापतियों से । यथा -
सृजामि प्रथमं वर्णं मगसंज्ञमनौपमम् इत्युक्त्वा तमहं वीर राजानं खगसप्तम् ॥22॥ जगाम परमां चिन्तां तस्य कार्यस्य सिध्दये । अथ मे चिन्तमानस्य स्वशरीराद्विनि:सृता: ॥23॥ शशि-कुन्देन्दु- संकाशा: संख्यडष्टौ महाबला: । पठन्ति चतुरो वेदान् सांगोपनिषद: खग ॥24॥
-भवि. पुराण
इस प्रकार मेघातिथि के वाक्य श्रवण के अनन्तर भगवान सूर्य ने गरूडानुज अरूण के प्रति स्वयं व्यक्त किया है । (भवि. पु. अध्याय 119) कि मग ब्राह्मण मुख से उत्पन्न हुए । अत: स्पष्ट है कि जम्बूद्वीप में प्रचलित इनका ऋषि गोत्र औपचारिक है । इस प्रसंग में पुराणों में अनेक प्रमाण है । जिसके आधार पर शाकद्वीपीय ब्राह्मणों में यौन संबंध भेद से मग रूप में ऋतव्रत सत्यव्रत, याजक, भोजक आदि संज्ञाओं से अभिहित है । उनका विवाह सम्बन्ध होता है, वशिष्ठादि भेद को मानकर नहीं किया जाता है। सगोत्र भारद्वाज आदि शाकद्वीपीय ब्राह्मणों के वर कन्या का विवाह निषिध्द है । यह कथन तथ्य हीन है । क्योंकि सन्तति उसे कहते हैं जैसे - सन्ततिर्गोत्रजननं कुलान्यभिजनान्वयौं इस व्युत्तत्ति से तथा वंशोडन्वाय: सन्तान: इस कोश प्रमाण परम्परा से ही शाकद्वीपीय वशिष्ट भारद्वाज आदि की सन्तति न होने से सगोत्र विवाह निषेध का कोई औचित्य प्रतीत नहीं होता है ।
असपिण्डा च या मातुरसगोत्रा च या पितु: । सा प्रशस्ता द्विजातीनां दारकर्मणि मैथुने ॥
उपरोक्त विवाह बोधक प्रमाण वचन से गोत्र शब्द से सन्तति का ग्रहण होता है, जो शाकद्वीपीय ब्राह्मणेत्तर ब्राह्मणों पर लागू होता है । सन्तति भेद ज्ञान के लिए ही गोत्रत्व बंधन माना गया है ।
प्राचीनतम सिध्दान्तानुसार भारद्वाज गोत्र का चार भेद इस प्रकार है (1) भारद्वाज (2) ऋक्ष भारद्वाज (3) कपि भारद्वाज और (4) गर्ग भारद्वाज । इस आधार पर शाकद्वीपीय भी भरद्वाज -भारद्वाज पद से 4-5 भेद में परिणत हो गये हैं । एक गोत्र को लेकर समानता नहीं रह गयी है । अत: भिन्न- भिन्न पुरों मे ंविचार कर बसाये गये हैं । वे पुर भी गोत्र भेद बोधक हैं । वर्तमान समय में भारद्वाज के दूसरे, तीसरे और चौथे भेद में पूर्व के ऋक्ष , कपि और गर्ग शब्द हट जाने से केवल भारद्वाज मात्र नाम गोत्र से अभिहित होने से सबके भिन्न होने पर भी एकता प्रतीत होता है । जबकि वैसा नहीं है। इस प्रकार पुर भेद होने पर परस्पर विवाह संबंध होने से समान गोत्र प्रवरादि की शंका नहीं होनी चाहिए । भारद्वाजीय ब्राह्मण का आंगिरसत्वेन ग्रहण होने से तत्तद् ऋषियों का अनुवर्तन होने पर भी प्रवर आदि में समान गोत्र प्रवर होने पर भी परस्पर ऋक्ष कपि, गर्ग भेद से विवाह इष्ट है ।
शाकद्वीपीय ब्राह्मण जम्बूद्वीप में बहत्तर पुरों मे ंबसाये गये, तब से यहां व्यवहार में पुर की प्रधानता है । इस संदर्भ में विचारणीय विषय है कि जम्बूद्वीप में आने से पूर्व शाकद्वीप में पुर था या नहीं ? या उक्त प्रजापति वशिष्ठ, भारद्वाज आदि के गोत्र थे ? सप्तद्वीप वाली समग्र पृथ्वी उक्त प्रजापतियों, मन्वादि प्रभृति शासकों द्वारा शासित पालित, उपकृत थी, उस आधार पर सामान्य ढंग से सगोत्र विवाह निषिध्द माना जाना उचित है। जम्बूद्वीप में शाकद्वीपीय ब्राह्मण जम्बूद्वीपीय सदृश हो गये हैं । इस दृष्टि से भी समान गोत्र में वैवाहिक संबंध अनुचित प्रतीत होता है। समान गोत्र ें विवाह निषेध वचन ऋषियों की अप्तवाणी माननी चाहिए । देशकाल परिस्थिति वश शास्त्रीय नियम यदि (शास्त्रानुकूल) बदलना पड़े तो बदला जाना चाहिए ।
पुर विषयक और गोत्र विषयक दोनों वचन शास्त्र के ही हैं । जिस प्रकार पुर विषयक विशेष व्यवस्था विचार विवाह संबंध में उचित है उसी तरह शास्त्र वचन के अनुसार समान गोत्र में भी विवाह संबंध निषेध मान्य है । दीर्घकाल से जम्बूद्वीप निवासी शाकद्वीपीय ब्राह्मण भी जम्बूद्वीपीय ऋषि मुनि प्रणीत सभी वचन व्यवहार, सत्कर्म, संस्कार आदि जैसे मानते आ रहे हैं, उसी प्रकार विवाह संबंध में भी भिन्न गोत्र पुर में वैवाहिक, सम्बंध करना उचित व कल्याणप्रद है । शाकद्वीप मे ंपुर प्रथा के प्रसंग में प्रामाणिक चर्चा अब तक उपलब्ध नहीं हो सकी है । जिससे यही प्रतीत होता है कि जम्बूद्वीप में ही पुर प्रथा प्रचलित हुई ।
मग ब्राह्मणों के गोत्र- पुर भेद तथा मूल स्थान
शाकद्वीपीय ब्राह्मणों के 18 कुलों को जम्बूद्वीप मे ंपेशावर (पंजाब) स्थित चन्द्रभागा नदी के तट पर बसाया गया । उन्हें उपहार स्वरूप अठारह पुर (ग्राम) दिया गया । प्रत्येक के चार चार पुत्र थे जो कालान्तर में पृथक-पृथक बहत्तर पुरों (ग्रामों) में निवास करने लगे ।